दैनिक जनवार्ता
संपादक की ओर से
मेरी कलम से…..✍️
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नाहन (सिरमौर)।
मुश्किलें बहुत थी मेरी और जेब थी फ़टी हुई।
मैं भाग रहा था फर्ज के ठेले को लेकर सांस थी अटी हुई।।
मेरी मुश्किलें फ़टी जेब से झांक रही थी।
फर्ज के चाबुक से पीटते हुए मुझे हाँक रही थी।।
चमड़ी मेरी चाबुक खा खा कर कठोर हो गई थी।
मेरी किस्मत भी मुश्किलें बटोर बटोर सो गई थी।।
चलते चलते हांफ हांफ कर एक जगह रुक गया था।
फर्ज का ठेला खींच खींचकर मैं थोड़ा झुक गया था।।
बीच राह खड़ा आंखें बंद कर कुछ सोच रहा था।
भीतर ही भीतर अहसास हुआ मुझे कुछ नोच रहा था।।
थोड़ा गर्दन उठा कर सामने देखा तो प्रकाश दिखाई दिया।
नई उम्मीदों का एक सुनहरा आकाश दिखाई दिया।।
बरबस ही चल पड़ा मैं उस उम्मीदों के आकाश की ओर।
अंधेरे से निकलकर चमकते हुए प्रकाश की ओर।।
मगर ये सब कुछ थोड़े वक्त के लिए एक सपना सा था।
बदल गया प्रकाश बदल गया वो आकाश जो अपना सा था।।
लड़खड़ाते कदमों से लौट रहा हूँ अपनी उसी हांफती ज़िंदगी में।
चाबुक के दर्द की सर्द हवाओं को सहती उसी कांपती ज़िंदगी में।।
संजय गुप्ता
संपादक।